सुबोध सतसई से
दोहे
करुणा कर जगदीश ने, दीनी मानुष देह ।
भेद न जान्यो जीव तन, रह्यो ताप त्रय नेह ।। 1।।
करुणा कर जब कर गह्यो, मिटी सकल भवमीत ।
यम की दुविधा मिट गई, जनम मरण की रीत ।।2।।
दुख में तो करतार को, भजे जपे हरिनाम ।
दुख बीते हरि कौन है, कैसो है घनश्याम ।।3।।
देव अनुज दोनों रहे, एक बाप दो पूत ।
अपने अपने कर्म सो बन गए पूत कपूत ।।4।।
जाके रज कण कण बसे, नूपुर को झंकार ।
नन्द दुलारे कृष्ण की वृन्दावन सरकार ।।5।।
जाके घर हरिहर बसें, दूजो धरे न पाम ।
ठौर ठाम दीखे नहीं कहाँ करे विश्राम ।।6।।
कियो धरो कैसे मिटे, जो बिधना को लेख ।
पाछे को पछिताय मत, आगे आगे देख ।। 7।।
क्या दिन में क्या रात में, अजब गजब संसार ।
नदी नाव संजोग है, हरि उतराते पार ।।8।।
खग मृग जलचर जीव सब, मानुस जीवन समेत ।
बिना कृपा हरि जानिए, जल बिन बोये खेत ।।9।।
मन की दुविधा ना मिटे, मिटे न मन की आस ।
कहा बापुरो तन करे, मन के हाथों रास ।।10।।
उलट बासनी बूझिए, रहिए मस्त मलंग ।
माया काया व्यापनी, मन की चाल मतंग ।।11।।
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