गोपाल कृष्‍ण तैलंग 'माहिर', महापुरा

सुबोध सतसई से 

दोहे 

 

करुणा कर जगदीश ने, दीनी मानुष देह । 

भेद न जान्‍यो जीव तन, रह्यो ताप त्रय नेह ।। 1।।

 

करुणा कर जब कर गह्यो, मिटी सकल भवमीत ।

यम की दुविधा मिट गई, जनम मरण की रीत ।।2।।

 

दुख में तो करतार को, भजे जपे हरिनाम ।

दुख बीते हरि कौन है, कैसो है घनश्‍याम ।।3।।

 

देव अनुज दोनों रहे, एक बाप दो पूत ।

अपने अपने कर्म सो बन गए पूत कपूत ।।4।।

 

जाके रज कण कण बसे, नूपुर को झंकार ।

नन्‍द दुलारे कृष्‍ण की वृन्‍दावन सरकार ।।5।।

 

जाके घर हरिहर बसें, दूजो धरे न पाम ।

ठौर ठाम दीखे नहीं कहाँ करे विश्राम ।।6।।

 

कियो धरो कैसे मिटे, जो बिधना को लेख ।

पाछे को पछिताय मत, आगे आगे देख ।। 7।।

 

क्‍या दिन में क्‍या रात में, अजब गजब संसार ।

नदी नाव संजोग है, हरि उतराते पार ।।8।।

 

खग मृग जलचर जीव सब, मानुस जीवन समेत ।

बिना कृपा हरि जानिए, जल बिन बोये खेत ।।9।।

 

मन की दुविधा ना मिटे, मिटे न मन की आस ।

कहा बापुरो तन करे, मन के हाथों रास ।।10।।

 

उलट बासनी बूझिए, रहिए मस्त मलंग ।

माया काया व्‍यापनी, मन की चाल मतंग ।।11।।

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