भानु भारवि, जयपुर


कविता निरंतर.... !

चाहता था लिखना
एक छोटी सी सुंदर कविता
सो गढ़ लिए थे
अनेकानेक आकांक्षाओं के नायाब शीर्षक
कविता के लिए
कितनी कल्पनाओं और विचारों के
बियाबान जंगलों में भटक था वह कि
रच सके एक मुक़म्मल कविता
व्याकरण के अथाह समंदर में
खोजता रहा
शब्दों के गहरे गूढ़ार्थ
चुन-चुन कर शब्द-बीजों को
रोप रहा था कविता की फ़सल
काली स्लेट पर सफेद खड़िया से
जन्म तो ले लिया था कविता ने
पर आहत था कवि प्रसवोत्तर की पीड़ा से
खुश न थी कविता भी देख कर अपना
सौंदर्य-बोध
पीडार्त्त कवि ने मिटा दी थी
काली स्लेट पर लिखी गई इबारत
और जमाने लगा था
कविता के लिए
रचे गए उन तमाम शीर्षकों को
पंक्तियों में
उसे लगा इन शीर्षकों की चीखों में
सुनाई दे रहा है कवि की
चेतना का स्पन्दन और
व्यथाओं के गहरे शब्दार्थ
उसे लगा अवतरित हो गई है
वह कविता जो वह चाहता था रचना
वह निहारने लगता है
सद्य उद्भूत कविता के यथार्थ को
और
निहारे ही जा रहा था वह
निरन्तर....निरन्तर....!
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01.10.2020

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