देवर्षि श्री विजय भट्ट, जयपुर


कोटा अंक, जनवरी मार्च 1996

 1.
अपने हिस्‍से की धूप 

उस छत पर हम
अपने हिस्‍से की धूप को
छोड़ कर आ गये नीचे
पानी पीने को
वापिस आ कर देखा
धूप नहीं थी हमारे हिस्‍से की.
एक छोर पर रह गई थी वो
किन्‍तु वो हमारे हिस्‍से की
धूप नहीं थी
हम चिल्‍लाते रहे
हमारे हिस्‍से की धूप के लिए
दुनिया पर किंतु दुनिया ने
हमारी झुँझलाहट पर कहा
ले लो तुम हमारे हिस्‍से की धूप
हम बढ़े उनकी धूप पर, किन्‍तु
वो छिटक कर
छज्‍जे के नीचे चली गई
तब हम जाने धूप का
वो हिस्‍सा हमारा नहीं
उनका है, हमारा हिस्‍सा तो
सिमटकर हमारी लापरवाही से
चला गया उनके हिस्‍से में
इसलिए वो हमारा नहीं
उनका हिस्‍सा है.   
  2.
बदलता संदर्भ 

सागर के तट पर
आती हिलोरें
मिटा देती हैं वहाँ उभरते
पद चिह्नों को
अगले क्षण आने वाला आगंतुक
सोचता है
मैं हूँ यहाँ आने वाला
प्रथम व्‍यक्ति
यहाँ आ चुके हैं पहले भी
बहुत से पथिक
वह सोच ले अगर
रीति रिवाजों को और
रख सकता है आज की
बदलती भावनाओं को
खोल सकता है
एक नया अध्‍याय
बदलते सन्‍दर्भ का.
--00--

01.10.2020

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