ग़ज़ल
1
कभी जागीर बदलेगी, कभी सरकार बदलेगी,
मगर तक़दीर तो अपनी
बता कब यार बदलेगी?
अगर सागर की यूँ ही प्यास जो बढती गई दिन दिन,
तो इक दिन देखना
नदिया भी अपनी धार बदलेगी।
हज़ारोँ साल मेँ जब दीदावर होता है इक
पैदा,
तो नर्गिस अपने रोने की तू कब रफ्तार बदलेगी?
सदा कल के मुकाबिल आज
को हम कोसते आये,
मगर इस आज की सूरत भी कल हर बार बदलेगी।
वो सीना चीर के नदिया
का फिर आगे को बढ जाना,
बुरी आदत सफीनोँ की भँवर की धार बदलेगी।
‘शरद पढ़ लिख गया है
पर अभी फाके बिताता है,
ख़बर उसको न थी क़िस्मत जो होँ कलदार बदलेगी।
2
जो अलमारी में हम अख़बार के नीचे छुपाते
हैं,
तो वो ही चन्द पैसे मुश्किलों में काम आते हैं ।
कभी आँखों से अश्कों का खजा़ना कम नहीं होता ,
तभी तो हर खुशी, हर ग़म में हम उसको
लुटाते हैं ।
दुआएं दी हैं चोरों को हमेशा दो किवाड़ों ने,
कि जिनके डर से ही सब
उनको आपस में मिलाते हैं ।
खुदा हर घर में रहता है वो हमको प्यार
करता है,
मग़र हम उस को अपने घर में माँ कह कर बुलाते हैं ।
मैं अपने गाँव से जब शहर की जानिब निकलता हूँ ,
तो खेतों में खड़े
पौधे इशारों से बुलाते हैं ।
’शरद’ ग़ज़लों में जब भी मुल्क़ की तारीफ़ करता है ,
तो मुफलिस और बेघर
लोग सुनकर मुस्कराते हैं ।
01;10;2020
('सान्निध्य' ब्लॉग से )
बहुत सुंदर रचना
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