क. रत्‍नगर्भ तैलंग 'देरकवि', जयपुर


पुष्‍कर क्षेत्र अंक, नवम्‍बर, 1996

मंडूक छंद
 1
सान्निध्‍य रहे श्रीमथुरेश का सदा, अरु भरता रहे छाछ से लोटा.
नित देते रहें हरि दरसन, शुचि बाँध के कभी कच्‍छ कछौटा.
अलबेली हवेली के तान सुनूँ और नहाने चलूँ तौलिए लाल लँगोटा.
संबल चंबल का यह स्रोत बढ़ै, तैलंग समाज का गढ़ है यह कोटा.
 2
चाह नहीं विद्वान् बनूँ, नहीं डिग्रियों की कोई अभिलासा.
चाह नहीं पद की मुझे किंचित् कि मेरा भी बजे शुभतासा.
कवि ‘देर’ विचार अनेकों करें, लिखूँ क्‍या यहाँ खासी या खासा.
सान्निध्‍य के प्रति लेख लिखूँ, कहीं बन जाऊँ न स्‍वयं ही तमासा.

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01.10.2020

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