सुरेश गोस्‍वामी 'सुरेशजी', जयपुर


गीतिका
छंद- गीतिका
मापनी - २१२२ २१२२ २१२२ २१२
समान्त - अह
पदांत - गया
यूँ अचानक जब मिले वो, देखता मैं रह गया.
याद ने मुझको भिगोया, भावना में बह गया

सामने तस्वीर उनकी, रोज़ आते याद थे
डायरी का एक पन्ना, सब कहानी कह गया

इस भरोसे ही तो' था मैं, छाँव देगा वृक्ष ये
सूखने से पूर्व मानव, दंश खुद ही सह गया

शान थी जो गाँव की कलकल नदी का शोर था
बह गई अट्टालिका तो, शून्य पसरा रह गया

दोस्त, साथी, खेल, बचपन, माँ, पिता का साथ था
क्या क़िला मजबूत था जो, धीरे' धीरे ढह गया

ढूँढती है आँख ''सुर'' की, खो गई राहें कहीं
क्या मिलेगा वो समय जो, यह गया ओ वह गया
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1.10.2020

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